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पड़ोसी मु्ल्क बांग्लादेश में हिंसा कुछ इस कदर भड़क चुकी है कि भारत के भी इससे प्रभावित होने के काफी आसार है। बता दें कि बांग्लादेश में कोटा आरक्षण से ये विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ लेकिन अब हिंदू समुदाय भी इस आक्रोश का शिकार बन रही है। दो दिन पहले मंदिरों और घरों में तोड़फोड़ की खबरें भी हमारे सामने आई थी और इस हिंसा का एक भयावह रूप हम सभी ने देखा। ऐसे में बांग्लादेश में प्रताड़ित हो रहे लोगों की मुश्किलें चरम पर हैं। कहा जाता है कि मुश्किल के समय में पड़ोसी ही काम आता है जैसे कि भारत। आपको याद ही होगा 1971 में भी भारत ने पाकिस्तान से लड़ाई मोल लेकर बांग्लादेश को आजाद कराया था। एक बार फिर वो समय आ चुका है जब प्रताड़ित बांग्लादेशी मदद की गुहार लगा रहे हैं।
पश्चिम बंगाल की सीएम और तृणमूल कांग्रेस की चीफ ममता बनर्जी ने कुछ समय पहले एक सार्वजनिक कार्यक्रम में बांग्लादेशी हिंसा का जिक्र उठाया और पड़ोसी देश के प्रताड़ित लोगों की मदद करने का वादा किया। ममता बनर्जी ने कहा, 'बांग्लादेश में प्रभावित लोगों के लिए पश्चिम बंगाल के दरवाजे हमेशा के लिए खुले हुए हैं, हम उनकी मदद के लिए हमेशा मौजूद रहेंगे'। इस पर बांग्लादेश के विदेश मंत्री हसन महमूद ने कमेंट कर धन्यवाद व्यक्त किया। लेकिन अब ममता दीदी के बोल बिल्कुल ही बिगड़े नजर आ रहे है या फिर ये कह लीजिए कि वो अपनी ही बात से मुकर गई हैं। अब उनके बयान आ रहे हैं जिसमें वो केंद्र के साथ जाने की बात कर रही हैं।
बांग्लादेश हिंसा में यदि कोई व्यक्ति हो जो विवादों से प्रभावित न हुआ हो, अब ममता दीदी के बयानों से जरूर गुमराह हो जाएगा क्योंकि आप देख सकते हैं कि चंद दिनों में सीएम ने अपने बयानों को काफी सफाई से पलटने की कोशिश की है। पहले जाहिर किया कि वो मदद करने के लिए हमेशा तैयार है लेकिन अब सरकार के फैसले का समर्थन कर रही हैं। साथ ही उन्होंने कहा है कि ऐसे गलत अफवाहें न फैलाएं, इससे लोगों को झूठी उम्मीदें मिलेंगी। राजनीतिक दलों के नेताओं से उन्होंने अपील की है कि भड़काऊ बयानबाजी देने से बचें। इसका साफ तौर पर प्रभाव बंगाल में देखने को मिलेगा।
जैसा कि आप सभी जानते हैं कि ममता बनर्जी उस तरफ नहीं जाती हैं जहां केंद्र जाती है। ममता बीजेपी के लिए हर फैसले का विरोध सबसे पहले करती हैं। ऐसे में ये सरकार के साथ जाएंगी, सुनने में कुछ अटपटा लगता है। लेकिन हम आपको इसके पीछे का तर्क जरूर दे सकते हैं। तो बिना देरी किए आगे पढ़िए। दरअसल, जब जब बंगाल में हिंसा भड़की है तब तब सीएम की कुर्सी गई है। बात करें 1964 की, पाकिस्तान और भारत के बीच युदध बुआ था। उस वक्त पाकिस्तानी हिंदू और बांग्लादेशी हिंदी प्रताड़ित होकर भारत की शरण में आए थे। 6 लाख की संख्या में शरणार्थियों को भारत में जगह दी थी। बंगाल की जनता को बुरा समय देखने को मिला, कईयों ने अपनी जान तक गंवाई थी। इसका परिणाम तुरंत मिला और 1967 के बंगाल विधानसभा चुनाव में पहली बार एंटी-कांग्रेस सरकार आई और सीएम बने अजय मुखर्जी।
दूसरी बार ये देखने को मिला 1971 में जब बांग्लादेश को आजाद कराने में लगभग 1 करोड़ शरणार्थी बंगाल में आए थे और संसाधनों पर कब्जा कर लिया था और इसका प्रकोप दिखा 1977 में जब एक बार फिर कांग्रेस हार गई और सीपीएम के ज्योति बसु को सीएम बना दिया गया। संभव है कि ममता इस इतिहास के पन्नों को वापस पलटने का अवसर जनता को न देना चाहती हो लेकिन बीजेपी नेता शुभेंदु अधिकारी, शरणार्थियों को शरण देने की गुहार लगा रहे हैं। ऐसे में केंद्र क्या फैसला लेती है वो अहम होगा।